1.
पीठ
थामें हुए है
जो प्रजातंत्र को
वही तंत्र
उधेडता चल रहा है/ उसकी खाल
पर
क्या कोई पीठ
बहुत दिनों तक ढो पाएगी
ऐसे जुल्मि तंत्र की ''पालकी''
2.
व्यर्थ नारे नहीं लगाती
राजपथों पर
नही होती शामिल
कुर्सियों के खेल में
नही मांगती मुआवजा
कभी नमकहलाली का
वह तो
स्वयं ढालती रही
उस इस्पात-सा जिस पर दौडती है गाडियां
जिससे बनती हैं मशीनें
पीठ ही तो है वह
जो संभाले रहती/ बरसों-बरस तक
रोटी और हक के मुद्देा
पीठ
थामें हुए है
जो प्रजातंत्र को
वही तंत्र
उधेडता चल रहा है/ उसकी खाल
पर
क्या कोई पीठ
बहुत दिनों तक ढो पाएगी
ऐसे जुल्मि तंत्र की ''पालकी''
2.
व्यर्थ नारे नहीं लगाती
राजपथों पर
नही होती शामिल
कुर्सियों के खेल में
नही मांगती मुआवजा
कभी नमकहलाली का
वह तो
स्वयं ढालती रही
उस इस्पात-सा जिस पर दौडती है गाडियां
जिससे बनती हैं मशीनें
पीठ ही तो है वह
जो संभाले रहती/ बरसों-बरस तक
रोटी और हक के मुद्देा
Good poem madam keep it up .
ReplyDeleteलोकतन्त्र ढोने की सज़ा पा रहा है, भारत का जन। बहुत सुन्दर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक अभिवयक्ति....
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteक्या बात है।