Tuesday, September 6, 2011

पीठ-शोषण और संघर्ष

1
हो सकता है
एक नक्‍शा
मुक्ति तक पहुंचने का
पर फिलहाल/ वह बहुत दूर
गुमनामी में खोए
उस कस्‍बे देहात-सा है
जो कानून से मुक्‍त/ दबाए रख रही है
जिस्‍म पर उभर आई नीली धारियां

2.
जो कारखनों-खदानों में
खप रही है
जो सूखे खेतों की
दरारों को ढो रही है
जो बस्‍तर के
उजडते जंगल/ और टूटते लोगों के
दर्द को जी रही है
वह भीड में
छुपा लेती है अक्‍सर
अपने पुट्ठों को
जिन पर
चिपका रह जाता है
हर कहीं
बह चुके पसीने का नमक
सुनाई दे जाती है
मिस्‍त्र के पिरामिड से लेकर
ताजमहल की दिवारों में दबी
कराह उसक‍ीा



1 comment:

  1. Lack of riming scheme make your statement little bit ineffective for which readers may loose the interest but still good .

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