Wednesday, September 28, 2011

हार्स-पावर

सोचो 
अगर पृथ्वी से चले जायें
सारे मजदूर
कहीं और
तो पृथ्‍वी से चले जायेगी
समूची मानव शक्ति
और शेष बचे रहेंगें कुछ हार्स-पावर
उन दिनों पृथ्‍वी
कितनी बावली हो जायेगी
कि हलक में
दो बूंद पसीना भी नही

बूंद

हम समुन्‍दर के लिए नही है
और ना ही है हम मेघों के लिए
ना पपीहे के कंठ के लिए
और ना ही मोरपंखों के लिए
हम वो बूंद है
जो
सोख लिए जाऐंगे रेगिस्‍तान में ............

Saturday, September 17, 2011

मिट्टी

घड़ा
मिट्टी
सोखती है आग को
और बदल जाती है घड़े में

घडा फिर सोखता है
पानी के आग को
और करता है
उसे शीतल

क्‍या गजब है
कि अग्निपरीक्षा के बाद भी
मिट्टी नही छोडती
अपनी प्रवृत्ति .................




खपरा

मिट्टी
का वह रूप
जो घोलती है
सोखती है
फिर
रोकती है
पानी को...
चाय

कैसी गजब की ताकत होती है ना आग में
पानी के बूंद-बूंद को
खौला देती,
शक्‍कर के हर दाने को
देती है अनंतता
और उद्वेलित करती है
चायपत्‍ती को
कि वह अपने अंदर की पूरी प्रतिभा
बाहर निकाल दे

कैसी अजब सी ताकत होती है ना आग में
कि वह तीन अलग अस्तित्‍व को
समेटकर
बनाती है एक. . . . . .चाय

Tuesday, September 6, 2011

पीठ- मुद्दे और हक

1.
पीठ
थामें हुए है
जो प्रजातंत्र को
वही तंत्र
उधेडता चल रहा है/  उसकी खाल
पर
क्‍या कोई पीठ
बहुत दिनों तक ढो पाएगी
ऐसे जुल्मि तंत्र की ''पालकी''

2.
व्‍यर्थ नारे नहीं लगाती
राजपथों पर
नही होती शामिल
कुर्सियों के खेल में
नही मांगती मुआवजा
कभी नमकहलाली का
वह तो
स्‍वयं ढालती रही
उस इस्‍पात-सा जिस पर दौडती है गाडियां
जिससे बनती हैं मशीनें

पीठ ही तो है वह
जो संभाले रहती/ बरसों-बरस तक
रोटी और हक के मुद्देा 

पीठ-शोषण और संघर्ष

1
हो सकता है
एक नक्‍शा
मुक्ति तक पहुंचने का
पर फिलहाल/ वह बहुत दूर
गुमनामी में खोए
उस कस्‍बे देहात-सा है
जो कानून से मुक्‍त/ दबाए रख रही है
जिस्‍म पर उभर आई नीली धारियां

2.
जो कारखनों-खदानों में
खप रही है
जो सूखे खेतों की
दरारों को ढो रही है
जो बस्‍तर के
उजडते जंगल/ और टूटते लोगों के
दर्द को जी रही है
वह भीड में
छुपा लेती है अक्‍सर
अपने पुट्ठों को
जिन पर
चिपका रह जाता है
हर कहीं
बह चुके पसीने का नमक
सुनाई दे जाती है
मिस्‍त्र के पिरामिड से लेकर
ताजमहल की दिवारों में दबी
कराह उसक‍ीा



Saturday, September 3, 2011

पीठ

1
जिसमें ढोता आया है
वह अपना हर दायित्‍व
सिर्फ वही जानता है
दो ऑंखे होती है श्रमिक की पीठ पर
शोषक के जुल्‍म को घूरती हुई
आखिर कब तक ढंकी रहे कमीज
कब तक दुबककर बैठे
बनियान के अंदर
जुल्‍म के खिलाफ बोलने के लिए होना ही पडेगा नंगा पीठ को
3
पेट से ज्‍यादा भरोसा करता है
श्रमिक अपनी पीठ पर
पेट का क्‍या
भर जाए
तो पूंजीपतियों के पक्ष में भी बोल सकता है