हम समुन्दर के लिए नही है
और ना ही है हम मेघों के लिए
ना पपीहे के कंठ के लिए
और ना ही मोरपंखों के लिए
हम वो बूंद है
जो
सोख लिए जाऐंगे रेगिस्तान में ............
घड़ा
मिट्टी
सोखती है आग को
और बदल जाती है घड़े में
घडा फिर सोखता है
पानी के आग को
और करता है
उसे शीतल
क्या गजब है
कि अग्निपरीक्षा के बाद भी
मिट्टी नही छोडती
अपनी प्रवृत्ति .................
खपरा
मिट्टी
का वह रूप
जो घोलती है
सोखती है
फिर
रोकती है
पानी को...
चाय
कैसी गजब की ताकत होती है ना आग में
पानी के बूंद-बूंद को
खौला देती,
शक्कर के हर दाने को
देती है अनंतता
और उद्वेलित करती है
चायपत्ती को
कि वह अपने अंदर की पूरी प्रतिभा
बाहर निकाल दे
कैसी अजब सी ताकत होती है ना आग में
कि वह तीन अलग अस्तित्व को
समेटकर
बनाती है एक. . . . . .चाय
1.
पीठ
थामें हुए है
जो प्रजातंत्र को
वही तंत्र
उधेडता चल रहा है/ उसकी खाल
पर
क्या कोई पीठ
बहुत दिनों तक ढो पाएगी
ऐसे जुल्मि तंत्र की ''पालकी''
2.
व्यर्थ नारे नहीं लगाती
राजपथों पर
नही होती शामिल
कुर्सियों के खेल में
नही मांगती मुआवजा
कभी नमकहलाली का
वह तो
स्वयं ढालती रही
उस इस्पात-सा जिस पर दौडती है गाडियां
जिससे बनती हैं मशीनें
पीठ ही तो है वह
जो संभाले रहती/ बरसों-बरस तक
रोटी और हक के मुद्देा
1
हो सकता है
एक नक्शा
मुक्ति तक पहुंचने का
पर फिलहाल/ वह बहुत दूर
गुमनामी में खोए
उस कस्बे देहात-सा है
जो कानून से मुक्त/ दबाए रख रही है
जिस्म पर उभर आई नीली धारियां
2.
जो कारखनों-खदानों में
खप रही है
जो सूखे खेतों की
दरारों को ढो रही है
जो बस्तर के
उजडते जंगल/ और टूटते लोगों के
दर्द को जी रही है
वह भीड में
छुपा लेती है अक्सर
अपने पुट्ठों को
जिन पर
चिपका रह जाता है
हर कहीं
बह चुके पसीने का नमक
सुनाई दे जाती है
मिस्त्र के पिरामिड से लेकर
ताजमहल की दिवारों में दबी
कराह उसकीा